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Vaikalpik Bharat Ki Talash

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आज़ादी के बाद हमने एक नया भारत बनाने की योजनाएँ बनाई थीं। एक शोषणविहीन, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, समतामूलक भारत जहाँ न कोई किसी की दया का मोहताज हो, न किसी को किसी से भय हो, न धर्म के नाम पर लोग मरें, न जाति के नाम पर कोई समाज की मुख्यधारा से बाहर रहे। लेकिन ऐसा हो न सका।कुल मिलाकर हम उतना आगे नहीं बढ़ सके जितना अपेक्षित था। हम में से अनेक आज भी उस आज़ादी को तरस रहे जो उनके पुरखों ने गांधी, भगतसिंह की मौजूदगी में सोची थी। लोग बीमार हैं और अस्पतालों में उनके लिए जगह नहीं है, वो जिन्हें अपने उद्धारक प्रतिनिधियों के रूप में चुनकर संसद और विधानसभाओं में भेजते हैं, वो अगले दिन उन्हें पहचानने से इनकार कर देते हैं, जिस व्यवस्था के दायरे में वे अपने घर-परिवार के सपने बुनते हैं, वह एक दिन सि$र्फ अपने लिए काम करती नज़र आती है।वैकल्पिक भारत कोई दिमागी शगल नहीं है। ज़रूरत है। जिन्हें अपने अलावा किसी भी और की चिंता है वे सब इस ज़रूरत को महसूस करते हैं। रविभूषण सजग आलोचक और सरोकारों के साथ जीने वाले विचारक हैं। इस पुस्तक में उनके उन आलेखों को शामिल किया गया है जो उन्होंने पिछले दिनों एक चिंतनशील नागरिक और बौद्धिक के रूप में अपनी जि़म्मेदारी को समझते हुए लिखे हैं।पुस्तक का विषय-क्रम देश के समय को एक-एक चरण में पार करते हुए आज तक आता है। दादाभाई नौरोजी, विवेकानंद से शुरू करते हुए वे आज़ादी, बाद की सत्ता और समाज के चरित्र पर आते हैं और अंत राष्ट्रवाद पर करते हैं। वही राष्ट्रवाद जो आज उन तमाम ताकतों का मुखौटा बना हुआ है जिन्हें अपने अलावा किसी भी और का बोलना पसंद नहीं। जो हिंसा को अपने अस्तित्व का पर्याय मानते हैं, और जिन्हें जाने क्यों लगने लगा है कि यह देश सिर्फ उनका है।

Vis mere
  • Sprog:
  • Hindi
  • ISBN:
  • 9789387462434
  • Indbinding:
  • Hardback
  • Sideantal:
  • 250
  • Udgivet:
  • 1. januar 2018
  • Størrelse:
  • 140x18x216 mm.
  • Vægt:
  • 467 g.
  • 2-3 uger.
  • 12. december 2024
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Beskrivelse af Vaikalpik Bharat Ki Talash

आज़ादी के बाद हमने एक नया भारत बनाने की योजनाएँ बनाई थीं। एक शोषणविहीन, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, समतामूलक भारत जहाँ न कोई किसी की दया का मोहताज हो, न किसी को किसी से भय हो, न धर्म के नाम पर लोग मरें, न जाति के नाम पर कोई समाज की मुख्यधारा से बाहर रहे। लेकिन ऐसा हो न सका।कुल मिलाकर हम उतना आगे नहीं बढ़ सके जितना अपेक्षित था। हम में से अनेक आज भी उस आज़ादी को तरस रहे जो उनके पुरखों ने गांधी, भगतसिंह की मौजूदगी में सोची थी। लोग बीमार हैं और अस्पतालों में उनके लिए जगह नहीं है, वो जिन्हें अपने उद्धारक प्रतिनिधियों के रूप में चुनकर संसद और विधानसभाओं में भेजते हैं, वो अगले दिन उन्हें पहचानने से इनकार कर देते हैं, जिस व्यवस्था के दायरे में वे अपने घर-परिवार के सपने बुनते हैं, वह एक दिन सि$र्फ अपने लिए काम करती नज़र आती है।वैकल्पिक भारत कोई दिमागी शगल नहीं है। ज़रूरत है। जिन्हें अपने अलावा किसी भी और की चिंता है वे सब इस ज़रूरत को महसूस करते हैं। रविभूषण सजग आलोचक और सरोकारों के साथ जीने वाले विचारक हैं। इस पुस्तक में उनके उन आलेखों को शामिल किया गया है जो उन्होंने पिछले दिनों एक चिंतनशील नागरिक और बौद्धिक के रूप में अपनी जि़म्मेदारी को समझते हुए लिखे हैं।पुस्तक का विषय-क्रम देश के समय को एक-एक चरण में पार करते हुए आज तक आता है। दादाभाई नौरोजी, विवेकानंद से शुरू करते हुए वे आज़ादी, बाद की सत्ता और समाज के चरित्र पर आते हैं और अंत राष्ट्रवाद पर करते हैं। वही राष्ट्रवाद जो आज उन तमाम ताकतों का मुखौटा बना हुआ है जिन्हें अपने अलावा किसी भी और का बोलना पसंद नहीं। जो हिंसा को अपने अस्तित्व का पर्याय मानते हैं, और जिन्हें जाने क्यों लगने लगा है कि यह देश सिर्फ उनका है।

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