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Sharad Parikrama

Bag om Sharad Parikrama

शरद जोशी के व्यंग्य का क्षेत्र बहुत व्यापक और विविधवर्णी रहा है। लेखन उनकी आजीविका का भी साधन था। एक सम्पूर्ण लेखक का जीवन जीते हुए उन्होंने अपने दैनंदिन की लगभग हर घटना, हर खबर को अपने व्यंग्यकार की निगाह से ही देखा। उनके विषयों में प्रमुख यद्यपि समकालीन राजनीति और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार ही रहा लेकिन क्षरणशील समाज की भी ज्यादातर नैतिक दुविधाओं को उन्होंने अपना विषय बनाया।मुक्तिबोध ने कहीं कहा था कि सच्चा लेखक सबसे पहले अपना दुश्मन होता है, अपने कटघरे में जो लेखक खुद को खड़ा नहीं कर सकता, वह दूसरों को भी नहीं कर सकता। शरद जोशी भी जब मौका आता है, खुद भी अपने व्यंग्य के सामने खड़े हो उसकी धार का सामना करते हैं। अपने अनेक निबन्धों में उन्होंने अपनी मध्यवर्गीय सीमाओं, चिन्ताओं और हास्यास्पदताओं का मजाक बनाया है।सच्चे व्यंग्यकार की तरह उन्होंने अपने लेखन में न सिर्फ जीवन की समीक्षा की, बल्कि व्यंग्य की जमीन पर जमे रहते हुए कहानी और लघु-कथाओं आदि विधाओं में भी प्रयोग किए। कवि-मंचों पर उनकी गद्यात्मक उपस्थिति तो अपने ढंग का प्रयोग थी ही।'परिक्रमा' उनका पहला व्यंग्य-संग्रह है जिसका प्रकाशन 1958 में हुआ था। इस नजरिये से इसका अध्ययन विशेष महत्व रखता है।

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  • Sprog:
  • Hindi
  • ISBN:
  • 9789387462557
  • Indbinding:
  • Hardback
  • Sideantal:
  • 394
  • Udgivet:
  • 1. januar 2018
  • Størrelse:
  • 152x25x229 mm.
  • Vægt:
  • 744 g.
  • 2-3 uger.
  • 12. december 2024
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Beskrivelse af Sharad Parikrama

शरद जोशी के व्यंग्य का क्षेत्र बहुत व्यापक और विविधवर्णी रहा है। लेखन उनकी आजीविका का भी साधन था। एक सम्पूर्ण लेखक का जीवन जीते हुए उन्होंने अपने दैनंदिन की लगभग हर घटना, हर खबर को अपने व्यंग्यकार की निगाह से ही देखा। उनके विषयों में प्रमुख यद्यपि समकालीन राजनीति और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार ही रहा लेकिन क्षरणशील समाज की भी ज्यादातर नैतिक दुविधाओं को उन्होंने अपना विषय बनाया।मुक्तिबोध ने कहीं कहा था कि सच्चा लेखक सबसे पहले अपना दुश्मन होता है, अपने कटघरे में जो लेखक खुद को खड़ा नहीं कर सकता, वह दूसरों को भी नहीं कर सकता। शरद जोशी भी जब मौका आता है, खुद भी अपने व्यंग्य के सामने खड़े हो उसकी धार का सामना करते हैं। अपने अनेक निबन्धों में उन्होंने अपनी मध्यवर्गीय सीमाओं, चिन्ताओं और हास्यास्पदताओं का मजाक बनाया है।सच्चे व्यंग्यकार की तरह उन्होंने अपने लेखन में न सिर्फ जीवन की समीक्षा की, बल्कि व्यंग्य की जमीन पर जमे रहते हुए कहानी और लघु-कथाओं आदि विधाओं में भी प्रयोग किए। कवि-मंचों पर उनकी गद्यात्मक उपस्थिति तो अपने ढंग का प्रयोग थी ही।'परिक्रमा' उनका पहला व्यंग्य-संग्रह है जिसका प्रकाशन 1958 में हुआ था। इस नजरिये से इसका अध्ययन विशेष महत्व रखता है।

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