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Adivasi Lok-Samaj

Bag om Adivasi Lok-Samaj

यह पुस्तक लेखक के गहन आदिवासी एवं लोक समाजों से निकले अनुभवों पर आधारित है। उनके सहज एवं समान तालमेल, तारतम्य, बंदोबस्त, दैनिक जीवन और भिन्]न बोलियों की सहज-सुलभ रफ्तार तथा प्रकृति से सहज साझापन अलग होकर भी हाल तक एक जैसे हुआ करते थे-दोनों प्रकृति को अविजित रखते। अपनी स्थिरता तथा सन्नाटा खो पिछले चंद दशकों में आदिवासी एवं लोक समाजों में वैसा साझापन अब समाप्त हो रहा हैगहन वनस्पति, मनुष्य, पशु, पुरखे, पहाड़, देवी, देवता, अंतरिक्ष, स्थूल एवं सूक्ष्म की समानांतर उपस्थिति, उनसे बने तारतम्य और फासले, दैनिक जीवन की एक अहस्तक्षेपित, अव्यस्त-सी लय व गति (या गतिहीनता)--ये समाज इन्हीं में रहा करते। अपने विस्तार, वीरान एवं रिश्ते लिये सबकी मिली-जुली बिरादरी होती। बस्तर के अबुझमाड़ जैसे प्राचीन एवं गहन इलाके में लोग कार्य न करते, न ही जानते, न जीविका न व्यवसाय, न रुझान रखते, फिर भी पिछले सौ वर्षों की स्मृति में भुखमरी सुनने में न आती। न अपराध, न हिंसा। गिनती पाँच तक। शब्दावली कोई तीन सौ शब्दों की। मौन की संस्कृति। संप्रेषण भरपूर। इससे अधिक कुछ नहीं चाहिए.यह पुस्तक आधुनिकता या सामाजिक विज्ञान के मुहावरे से निकल हाल तक के ऐसे समाजों और जीवन-दृष्टि को इंगित करने का प्रयास है।

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  • Sprog:
  • Hindi
  • ISBN:
  • 9789355718389
  • Indbinding:
  • Hardback
  • Sideantal:
  • 192
  • Udgivet:
  • 17. maj 2022
  • Størrelse:
  • 140x14x216 mm.
  • Vægt:
  • 390 g.
  • 2-3 uger.
  • 19. december 2024
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Beskrivelse af Adivasi Lok-Samaj

यह पुस्तक लेखक के गहन आदिवासी एवं लोक समाजों से निकले अनुभवों पर आधारित है। उनके सहज एवं समान तालमेल, तारतम्य, बंदोबस्त, दैनिक जीवन और भिन्]न बोलियों की सहज-सुलभ रफ्तार तथा प्रकृति से सहज साझापन अलग होकर भी हाल तक एक जैसे हुआ करते थे-दोनों प्रकृति को अविजित रखते। अपनी स्थिरता तथा सन्नाटा खो पिछले चंद दशकों में आदिवासी एवं लोक समाजों में वैसा साझापन अब समाप्त हो रहा हैगहन वनस्पति, मनुष्य, पशु, पुरखे, पहाड़, देवी, देवता, अंतरिक्ष, स्थूल एवं सूक्ष्म की समानांतर उपस्थिति, उनसे बने तारतम्य और फासले, दैनिक जीवन की एक अहस्तक्षेपित, अव्यस्त-सी लय व गति (या गतिहीनता)--ये समाज इन्हीं में रहा करते। अपने विस्तार, वीरान एवं रिश्ते लिये सबकी मिली-जुली बिरादरी होती। बस्तर के अबुझमाड़ जैसे प्राचीन एवं गहन इलाके में लोग कार्य न करते, न ही जानते, न जीविका न व्यवसाय, न रुझान रखते, फिर भी पिछले सौ वर्षों की स्मृति में भुखमरी सुनने में न आती। न अपराध, न हिंसा। गिनती पाँच तक। शब्दावली कोई तीन सौ शब्दों की। मौन की संस्कृति। संप्रेषण भरपूर। इससे अधिक कुछ नहीं चाहिए.यह पुस्तक आधुनिकता या सामाजिक विज्ञान के मुहावरे से निकल हाल तक के ऐसे समाजों और जीवन-दृष्टि को इंगित करने का प्रयास है।

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